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Friday, July 15, 2011

पुराणमित्येव न साधु सर्वम्

पुराणमित्येव न साधु सर्वम्
न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम़्


puraaNam iti eva na saadhu sarvam
na cha api kaavyam navam iti avadyam

मैंनें जब इस चिट्ठे की शुरुआत की थी, तो सोचा था कि इसमें मै अलग अलग भाषाओं से अपनी पसन्दीदा कविताओं का संकलन प्रस्तुत करूंगा. पर उर्दू का नशा मुझ पर कुछ यूं तारी हुआ कि मैं न दायें देख सका न बायें. अब मेरी कोशिश रहेगी कि ज़रा अपनी बाक़ी भाषाओं को भी शामिल करूं. हालांकि डर है कि उर्दू फिर हावी हो जाएगा :) ख़ैर अगर हो भी जाए तो कोई बुरी बात नहीं है. आज मैं अपने एक पसन्दीदा श्लोक को शामिल कर रहा हूं जो कालिदास के प्रख्यात नाटक मालविकाग्निमित्रम से उद्धृत है. अक्सर हम पुराने के मोह पाश में कुछ यूं पड जाते हैं, कि नए की अच्छाईयों से बेख़बर रहते हैं. ओल्ड इज़ गोल्ड - ये कथन तो अब इतना घिसा पिटा हो गया है कि इसे सुनकर कोफ़्त होने लगती है. ख़ैर इस ब्लॉग पर इतना वाचाल होने की मेरी मंशा नहीं है. तो फिर लौटते हैं मुद्दे पे. 

पुराणम यानी पुराना 
न साधु सर्वम यानी हमेशा सबसे अच्छा नहीं होता
न च अपि काव्य्म नवम और ना ही नई सोच या काव्य
इति अवद्यम यानी निन्दनीय है 

अर्थात पुरानी चीज़ ज़रूरी नहीं है हमेशा अच्छी हो, और उसी तरह नई सोच या काव्य निन्दनीय हो, ख़राब हो, प्रशंसा के क़ाबिल ना हो, ऐसा भी नहीं है. क्या बात कह गए ना कालिदास साहब दो सहस्राब्दि पूर्व. तो अगर आइन्दा आपके बुज़ुर्ग आप से पुराने की तारीफ़ करें और नए की निन्दा. तो ये श्लोक चिपका दीजियेगा उन्हें. और कटे पे नमक के रूप में ये भी कह दीजियेगा कि उन से भी बहुत पहले के महाकवि कालिदास ने कहा है ये.

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