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Tuesday, July 19, 2011

नहि सुप्तस्य सिम्हस्य प्रविशंति मुखे मृगा:

उद्यमेन हि सिध्यंते कार्याणि न मनोरथै:
नहि सुप्तस्य सिम्हस्य प्रविशंति मुखे मृगा:

सुभाषित 

ये श्लोक मुझे बचपन में मां बाप और टीचरों से इतनी बार सुनना पडा, कि सुनकर कोफ़्त होने लगी थी. पर अब जब ये श्लोक याद आता है तो इसकी मिसाल बहुत अच्छी लगती है. सोचिये कि एक शेर सोया हुआ है, और हिरण पास से गुज़र रहा है, और शेर को देखते ही सोचता है कि ये तो शेर है, उठेगा तो मुझे पकड ही लेगा. तो क्यों ना मैं ख़ुद इसके पास जाकर निवेदन करूं कि वो अपना मुंह खोले ताकि मैं अन्दर घुस सकूं. 

ऐसा भी कभी होता है! चलिए श्लोक को तफ़्सील से देखते हैं. 

उद्यमेन यानी मेहनत से
हि यानी ही
सिध्यंते यानी सिद्ध होते हैं, हासिल होते हैं
कार्याणि यानी कार्य का बहुवचन 
न मनोरथै: यानी सिर्फ़ मन में सोच लेने से नहीं
सुप्तस्य सिम्हस्य यानी सोये हुए शेर के
{नहि}..प्रविशंति मुखे मुंह में नहीं घुसते
मृगा: यानी हिरण का बहुवचन

अर्थात जो काम हैं वो मेहनत करने से ही पूरे होते हैं. आप भले ही शेर हों, पर अगर लेटे रहें और सोये रहें, तो ऐसा हरगिज़ नहीं होगा कि कोई हिरण आपके मुंह में ख़ुद घुस जायेगा. आपको हर रोज़ साबित करना होगा कि आप शेर हैं.  जब भी मैं डिस्कवरी या ऍनिमल प्लॅनिट पे एक शेर को हिरण के शिकार से चूंकते हुए देखता हूं तो सोचता हूं सोया हुआ शेर तो छोडिये तेज़ भागने वाले शेर के मुंह में भी हिरण नहीं घुसते. हिरण उन शेरों के मुंह में घुसते हैं जो हिरणों से तेज़ भाग पाते हैं. 

ये पोस्ट है या प्रवचन! ख़ैर मेरा ब्लॉग है. अब लिख दिया है सो लिख दिया. 


4 comments:

  1. मुझे भी इस श्लोक ने बहुत ही प्रभावित किया है।

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  2. बहुत ही लाज़वाब पूरा कंठस्त है और प्रेरणा देता हैं

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  3. Thanks buddy (your name is not displaying so don't know who should i thank to). I was searching this Sholka for my team for some pep-talk and my search landed me here. Thanks again for writing this post.

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