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Tuesday, October 20, 2009

दूर से आये थे साक़ी सुन के मयख़ाने को हम

दूर से आये थे साक़ी सुन के मयख़ाने को हम

बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम

मय भी है मीना भी है, साग़र भी है साक़ी नहीं

दिल में आता है लगा दें, आग मयख़ाने को हम

नज़ीर अकबराबादी

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