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Thursday, November 13, 2008

वो शोर जैसे कि अख़बार छपता रहता है

सुबह से ढूंढ रहे थे कि कहां है सूरज
अब नज़र आये हो तो सारा जहां रोशन है

नहीं है मेरे मुक़द्दर में रोशनी न सही
ये खिडकी खोलो ज़रा सुबह की हवा तो लगे

दिमाग़ भी कोई मसरूफ़ छापा ख़ाना है
वो शोर जैसे कि अख़बार छपता रहता है

वो बाल्कनी में आये तो रास्ता रुक जाये
सड़क पे चलने लगे तो हमारे जैसा है

बशीर बद्र

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