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Friday, July 18, 2014

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते; जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर

एक बूँद

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी ?

दैव  मेरे भाग्य में क्या है बढ़ा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी गिर अंगारे  पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।

अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

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