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Sunday, July 24, 2011

क्षुद्रम् हृदय दौर्बल्यम् त्यक्त्वा उत्तिष्ठ परंतप

क्लैब्यम् मा स्म गम: पार्थ न एतद् त्वयि उपपद्यते
क्षुद्रम् हृदय दौर्बल्यम् त्यक्त्वा उत्तिष्ठ परंतप 

भगवद गीता

पहली बार भगवद गीता का श्लोक शामिल कर रहा हूं. धार्मिक कारणों से नहीं, मगर इसके अन्दर के अर्थ से प्रभावित होकर. ये श्लोक मैंनें सुना है स्वामी विवेकानन्द का भी पसन्दीदा श्लोक था. 

हे पार्थ यानी अर्जुन, डरपोक मत बनो, ये तुम्हें शोभा नहीं देता. हृदय की इस नीच कमज़ोरी को त्याग कर उठो दुशमनों को जला कर भस्म करने वाले अर्जुन. 

इससे दो सीख मिलती है. एक तो अर्जुन जैसे योद्धा को भी डर लगता है. और वो लडाई के अपने डर को अपने प्रियजनों के प्यार के रूप मे पेश करने की कोशिश करता है. कृष्ण इसे ताड जाते हैं, और कहते हैं, इस नीच डर को त्याग दो, तुम मे आज भी इतनी क़ाबिलियत है कि तुम अपने दुशमनों को जला कर ख़ाक़ कर सको. बस इस नीच डर को छोड दो और उठो. 


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